Friday, April 4, 2014

मीराबाई में स्त्री-चेतना


मीराबाई में स्त्री-चेतना
अमित कुमार सिंह कुशवाहा
शोध छात्र,
 महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
(महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के 24-25 जनवरी 2014 के राष्ट्रीय सेमिनार में प्रस्तुत शोध पत्र )

भक्ति-साधना की तन्मयता और भक्तिरस की उज्जवलता की दृष्टि से कृष्ण भक्ति परम्परा में मीरा का नाम अद्वितीय है। कृष्ण के अनुराग में समर्पित मीरा में भक्ति का अबाध प्रभाव है। यह प्रवाह मुरझाये मन को आज भी सींचकर हरा-भरा कर सकता है। भक्ति आन्दोलन ने अपने विकास क्रम मेंजब सगुण-सांस्थानिक रूप धारण किया, उस काल में मीरा का उभार एक अप्रतिम घटना थी। 

भक्ति-काव्य और संत कवियों की परंपरा में स्त्रियों का भी काफी योगदान है। उनमें ‘मीराबाई’1का प्रमुख स्थान है।इनके अतिरिक्त दयाबाई, सहजोबाई, गौरीबाई, शेख, ताज, रत्नावली, सांई आदि नाम भी कम उल्लेखनीय नहीं। दयाबाई, सहजोबाई निर्गुण भक्ति-धारा के नाम हैं। संत तुलसीदास की कवयित्री पत्नी रत्नावली और कवि गिरधर गोपाल की पत्नी सांई के पद और मुक्तक नीति-साहित्य पर आधारित हैं। शेष नाम प्रायः मीरा के पद-चिन्हों पर चलने वाली कृष्ण-भक्ति और प्रेम की समर्पित कवयित्रियों के हैं।इनमें छत्रकुंवरिबाई, प्रताप कुंवरिबाई, राधाबाई, गौरीबाई, कृष्णाबाई, दीवालीबाई, ताज आदि हैं। ‘‘मध्यकाल में स्त्री रचनाकारों की व्यापक उपस्थिति थी। जो अधिकतर (पुरूषों की तरह) आचार्यो या मठों की परम्परा में दीक्षित न होकर, घरों या राजघरानों में सृजनरत थीं, जिनमें एक तरफ संस्कृत-फारसी के माध्यम से काव्यरूढि़-मय लेखन के अभिजात चेहरे थे, तो दूसरी तरफ लोकसभा चारण-स्वर, रीति-सिद्धि, सन्त-ध्वनि के साथ लोकानुभव को काव्यबद्ध करने वाले आम चेहरे भी थे।2

मीरां क्षत्रिय कुल में जन्मी थीं और राजरानी थीं।वह ऐसे समय में जन्मी थीं, जब देश में भक्ति-आन्दोलन चल रहा था। यदि ग्रियर्सन के शब्दों में कहें तो- ‘‘यह धार्मिक आन्दोलन अब तक का सबसे विशालतम आन्दोलन था, जो बौद्ध आन्दोलन से भी विशाल था, क्योंकि उसका प्रभाव आज तक विद्यमान है।’’ ग्रियर्सन आगे कहते हैं कि-‘‘तब धर्म ज्ञान का नहीं, बल्कि भाव का विषय था और हम यहाँ ऐसे रहस्यवाद और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं, जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति के नहीं थे।’’
मीरा का बचपन से ही ‘गिरधर गोपाल’ के प्रति विशेष अनुराग था, और आरम्भ से ही वह भगवान कृष्ण की उपासिका थीं। मीरां ने विवाह तो किया, परन्तु लौकिक पति को पति नहीं माना। उन्होंने ईश्वर-रूप कृष्ण को अपना वास्तविक पति मानकर अपना जीवन कृष्णमय बना लिया।एक साधु से प्राप्त कृष्ण की मूर्ति को वे अपने साथ ससुराल ले गई थीं। इस घटना से संबंधित अनेक लोककथाएं प्रचलित है। मौखिक परम्परा से आये ‘हरजस’ के एक गीत में देखिए कि-
‘हे जोशी दायां हथलेवा दीनानाथ का है तूं तो बायां जुडा’,
‘जीवणूं हथलेवौ दीनानाथ को रै जोशी डावोडो हथलेवौ जुडाय।’3

मीरां को संसार किस तरह सात फेरों में बांधना चाहता है और मीरा उसके उलट, अपने फेरे लगाती है कि वे तो खुलते जाते हैं और आत्मा का सहचर उससे लिपटता जाता है। यही तो स्वाधीनता है न कि दूसरे बांधना चाहें तो आप इन्कार कर सकें और आप बंधना चाहें तो दूसरे इन्कार न कर सकें। बारात आयी है, फेरे पड़ने वाले हैं। लेकिन वह कृष्ण की प्रतिमा झोली में डालकर मंदिर में सांकल चढाकर जा बैठती है। बाहर फेरों के लिए उसे बुलाया जा रहा है और वह भीतर फेरे ले रही है। दादा जी बुलाने आते हैं, ‘मीरांबाई, खोलो नीं सजड किंवाड’, पर तब वह पहला फेरा ले रही है, माँ आती है तब दूसरा, काका आते हैं तब तीसरा, काकी आती है तब चैथा, पांचवें में भाई, छठे में भाभी और सातवें में बुआ जी। हर कोई अपना वास्ता देता है, दादा जी सफेद बालों की लज्जा रखने का, माँ दूध का, काका-काकी गोद में खिलाने का, भाई राखी का, भाभी घूंघट का और बुआ तो बरस ही पडती है, ‘हमारे कुल में तू ही बस कुंवारी है, तूने कुल को कलंक लगा दिया।’ जैसे-जैसे मीरा गिरधर के साथ फेरे ले रही है, दुनिया के फेरे खुल रहे हैं। एक गिर्री में धागा लिपट रहा है, दूसरी गिर्री का खुल रहा है। बाहर हाहाकार, भीतर समाहार। 

मीरा ने इस ईश्वरीय आलम्बन को पति-पत्नी के मानवीय सम्बन्धों में बाँधकर उसे लोक-मानस के लिए सुलभ बना दिया। इतिहास मीरां का विवाह और पति की मृत्यु दर्शाता है, विद्वान् उससे वैराग्य परिभाषित करते हैं, पर मीरां इस विवाह से ही इन्कार करती हैं। वह वैरागिन तो कुसुंभी साड़ी पहनकर गिरधर के रंग ‘राची’ हैं। उनका गिरधर उसकी साड़ी की गोटा-किनारी है, ‘सांवरो म्हारै सालूडा री कोर।’ भगवा मीरां में केसरिया के अर्थ में आता है तो एक ओर दुनिया से नाता तुड़ाता है तो दूसरी ओर ‘केसरिया बालम’ से जुडाता भी है, ‘सांवरिया के दरसन पास्यूं पहर कुसंभी सारी।’इस मानवीय सम्बन्ध ने भक्ति को नया आयाम और नया रूप दिया तथा धर्म की रहस्यवादिता एवं घोर आध्यात्मिकता के स्थान पर भक्ति साधारण मनुष्य के जीवन का अंग बन गयी। मीरां की काव्य-साधना ने कृष्ण के अलौकिक एवं पारलौकिक अस्तित्व को जैसे समाप्त कर उन्हें मानवीय प्रेम की पूर्णता एवं रस-निष्ठा का प्रतीक बना दिया और प्रेम में आत्मोत्सर्ग, तन्मयता, तीव्रता, मिलन-वियोग की गहरी सम्वेदना का ऐसा रागात्मक सम्बन्ध उत्पन्न किया, जिसने वेदना में आत्म-परिष्कार एवं आत्मा-परमात्मा के एकत्व का मार्ग प्रशस्त किया।

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज-परिवार को अच्छा नहीं लगता और तमाम तरह के प्रतिबंध लगाये जाते है। 
‘‘हेरी महासूं हरि बिनि रह्यो न जाय।
सास लडै़ मेरी ननद खिजावै, राणा रह्यो रिसाय।
पहरों भी राख्यों, चैकी बिठारयो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीति पुराशी सौ क्यूं छोड़ी-जाय।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, अवरून आवै म्हारीदाय।’’4
मीरा के उपर अनंेको प्रतिबंध लगाने के बावजूद जब वे नहीं मानी तो देवरानी उदा, मीराबाई को समझा रही है कि-भाभी! यदि तुम अपना हठ नहीं छोड़ती, तो दण्ड स्वरूप तुम्हे बासी-कूसी मिलेगा, खट्टी छाछ मिलेगी, रो-रो कर भूखों मर जाआगी। अतः हठ छोड़ो। अच्छा खाओं और अच्छा पहनों।
‘‘खीर-खांड़ को भोजन जीमो भाभी ओढ़ो दिखणी चीर
बस्या कुस्या टूकड़ा ये भाभी और मिलेगी खाटी छाय
रो-रो भूखा मरो ये भाभी, नहीं मिलेगो हरि आय।’’5

सही मायने में इसी को कहा जाता है कि-स्त्री को व्यक्ति बनने से रोकने, उसे अपने दायरे में रखने के लिए ‘भय’ एवं ‘प्रलोभन’ के दो छोरों से बनायी गयी पितृसत्ता की रणनीति, जिसे लागू करने की जिम्मा बड़ी ही साजिस एवं चालाकी के साथ सास रूपी जेलर व ननद रूपी जमानतदार को सौंप दी जाती है। इसके बावजूद भी जब मीरा नहीं मानी तो उसको विष देकर मारने की कोशिश की। 
‘‘पग बांध घुघर्यां मीरां णाच्याँँ री।
लोग कह्यां मीरां भई बावरी, सासु कह्याँँ कुलनासी री।।
विख रो प्यालो राणा भेज्याँँ पीवां मीरां हांसी री।।’’6

मीरा ने अपने जीवन के कष्टों का संकेत जगह-जगह अपने पदों में दिया है। ‘‘मीरा का विषपान-मध्यकालीन नारी का स्वाधिनता के लिए संघर्ष है, और अमृत उस संघर्ष से प्राप्त तोष है। विष मीरा का लौकिक यथार्थ है और अमृत उनके भाव जगत का परमार्थ’’7
‘‘सीसोद्या राणों प्यालो म्हाँँने क्यूं रे पठायो।
भली बुरी तो मैं नहिं कीन्हीं राणा क्यूं है रिसायो।
थांने म्हाँँने देह दियो है प्यारो हरिगुण गायो।
कनक कटोरे लै विष घोल्यो दयाराम पण्डो लायो’’8

मीरा, राणा को अकसर ताने और चुनौती देती है। समस्त प्रतिबंधों का खलनायक शायद यही है। यही जहर का प्याला, सांप की पिटारी, कांटों की सेज वगैरह मीरा के लिए भेजता है, जो अमृत के प्याले, माला और फूलों की सेज में बदल जाती है, क्योंकि इसी राणा के काल में मीरा अपने घर मेड़ता चली गयी थी और वहां से द्वारिका। 
‘‘माई म्हाँँगोविन्द गुण गाणा।
राजा रूठ्या नगरी त्यागाँँ, हरि रूठ्याँँ कठ जाणा।
राणो भेज्या विख रों प्यालो, चरणामृत पी जाणा।
काला नाग पिटार्याँँभेजा सालगराम पिछाणा।
मीरां गिरधर प्रेम दिवाँँणी रावलिया वर पाणा।’’9

कई बार तो मीरा राणा को ललकारते हुए कहती है कि-‘‘राणा तुम आदमियों में इतने गुणहीन हो, जितने वृक्षों में कैर।’’10मीरां के पदों में प्रेम पीर की भी मार्मिक कसक सामयी हुई है। उनका प्रत्येक शब्द मार्मिकता, मधुरता और अनुभूति से भरा हुआ है-
‘‘हेरी म्हा तो दरद दिवाँँणाी म्हाराँँ दरद न जाण्यां कोय।
घायल री गत घायल जाण्याँँ हियड़ो अगण संजोय।।’’11

घर-परिवार के लोगों के उपालम्भ, व्यंग, कष्ट, मीरा को ताकत देते हैं। मानना होगा कि मीरा की भक्ति में अबला की दयनीयता नहीं बल्कि, झेलने का साहस है, स्त्री-चेतना का सौन्दर्य है। और इसी कारणमीरा ने अपना घरबार, परिवार तथा लोक-लाज सभी कुछ त्यागकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग इन्हें देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था -
‘स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता-पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।’’12

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया-
‘‘जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।’’13

मीरांबाई भक्तिकाल की सर्वोत्कृष्ट भक्त कवयित्री ही नहीं थी बल्कि स्त्री चेतना को नया आयाम देने वाली स्रष्टा थीं, जिस प्रकार से वे गिरधर नागर की ओर एक निष्ठभाव से चित्त को लगा दिया, और राजमहल त्यागकर मंदिरों में गिरधर की मूर्मि के आगे तन्मयभाव से नृत्य करने लगी, जिनका उदाहरण मिलना दुर्लभ है। ‘‘हिन्दी साहित्य के हजारों साल के इतिहास में जिस तरह कबीर अकेले हैं, उसी तरह मीरा भी है’’14

आज समय के जिस दौर में मीरा जैसों को, स्त्री-स्वाधीनता की सच्ची प्रतिनिधि को, अपने बीच चलती-फिरती पाएंगे और पाएंगे कि वह आधुनिक स्त्री से ज्यादा आधुनिक और क्रांतिकारी है। स्त्री स्वाधीनता का एक समूचा दर्शन है। देश, काल, देह और मन पर रची जीवित चित्रशाला है। ‘‘..............स्त्री और साथ में राजघराने की स्त्री, फिर ऊपर से वधू होने के कारण उसकी साधना कबीर से भी कठिन है, अतः उसका विद्रोह कबीर से भी महंगा और कीमती है। (जिस तरह तसलीमा का संघर्ष सलमान रूश्दी के संघर्ष से कठिन और कीमती है) एक साथ वे राजसत्ता, पितृसत्ता सिसोदिया कुल की मर्यादा (कुलकानी) और सामन्ती समाज की रूढि़यों (लोकलाज) से लड़ रही थी।’’15मीरां का वैशिष्ट्य इतना ही नहीं है। मीरां ने पति की परम्परागत सत्ता एवं अधिकार को स्वीकार नहीं किया और न पति के देहान्त के बाद सती होकर परम्परा को आगे बढ़ाया। उस युग के सामन्ती परिवेश तथा पुरुष-प्रधान समाज में ‘पति को परमेश्वर’ माननेवाली हिन्दू स्त्री का ‘परमेश्वर को पति’ मानने का अधिकार प्राप्त करना आसान नहीं था। यह एक प्रकार से राजनीतिक सामन्तवाद तथा धार्मिक परम्पराओं के विरुद्ध मीरां के रूप में युग की नारी का मूक विद्रोह था। 

मीरां इस मूक विद्रोह के कारण ‘कुलनाशी’ कहलायी और उसे विष का प्याला भी पीना पड़ा, परन्तु मीरां ने नारीत्व को जीवित रखा और सिद्ध कर दिया कि पति की सत्ता के बिना भी नारीत्व का अस्तित्व है।मीरा ‘विधवा’ होने पर भी ‘विधवा’ के झूठे-सच के परखच्चे उड़ा दिये। कदाचित यह आधुनिक बोध मीरा को था कि विधवा होती नहीं बल्कि बनायी जाती है। ‘वैवध्य’ एक काल्पनिक दुख है जो स्त्री पर थोपकर, उसे आजीवन दुखी रहने का धर्म ठहराया जाता है। ‘‘वैवध्य के पीछे है ‘विवाह’ की पितृसत्तात्मक धारणा तथा ‘विवाह’ के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार-‘विवाह करे या न करे अथवा किससे करे’, इसकी स्वतंत्रता को कुचलते रहने की परम्परा है।’’16मीरा ने ऐसे विवाह को खारिज कर दिया। उस युग में पति के मरने पर ‘रूपकुंवर’ बनाये जाने वाली स्त्रियां कितनी थी, उनके उत्प्रेरक रूप में ‘जनसत्ता’17जैसे ज्ञानी अखबारों के पूर्वज भी ढ़ेर सारे होंगे, पर ‘रूपकुंवर’ बनने से इनकार करने वाली मीरा तो एक ही थी। वह भी कहीं छुपकर नहीं बल्कि खुले मैदान में ताल ढ़ोककर खड़ी, समाज की इस कुत्सित मांग को खारिज करतीं-‘‘गिरधर गास्यां, सती न होस्या, मन मोह्यों घनमाणी’’इस प्रकार मीरां ने नारी की स्वतत्र सत्ता का उद्घोष करके भी उसे स्वकीया प्रेम से जोड़ा तथा परमेश्वर पति के प्रति एकनिष्ठ प्रेम की साधना करके भारतीय नारी को परम्परागत मर्यादा और संयम में रखा। वास्तव में मीरां इष्टदेव के प्रति अनन्य भाव, स्वकीया प्रेम की तन्मयता, घनीभूतता, वियोग में मिलन की कामना, संयम और मर्यादा आदि के कारण भारतीय नारी का जीवन्त प्रतीक बन गयीं।

आधुनिक स्त्री-चेतना की तरह व्यापक स्त्री-प्रश्नों को व्यापक स्तर पर उठाकर लौकिक धरातल पर उनका समाधान खोजने का माद्दामीरा के यहाँ सम्भव नहीं था। उनका विद्रोह बौद्धकालीन थेरियों की तरह ही व्यक्तिगत है। पर, थेरियों की परम्परा में उन्हें इसलिए नहीं रखा जा सकता क्योंकि विवाह व्यवस्था व ससुराल में अपना अनुभूत-स्त्री के बहुमुखी उत्पीड़न-दलन, आर्थिक घुटन एवं उसके प्रति जारी घरेलू हिंसा का जो कच्चा-चिट्ठा थेरियां खोलती हैं। जिससे वे आम स्त्रियों की समस्या से जुड़ जाती है, वैसा मीरा के यहाँ देखने को नहीं मिलता है। न तो विवरण में उतनी व्यापकता है, न कथन में ही उतनी प्रत्यक्षता की आग। वे अपने समय के लोक साहित्य में प्रतिबिम्बित नारी प्रश्नों के विशाल दायरे से भी मीरा को उपकृत होते नहीं पाया गया। ‘‘मीरा का विद्रोह कबीर के विद्रोह की तरह साधन है, साध्य नहीं। इन दोनों का साध्य ऐसे भाव की प्राप्ति में है, जो समस्त दुविधाओं, द्वैतों और भेंदों से उपर उठा दे, सर्वात्मभाव में प्रतिष्ठित कर दे।’’18

सिर्फ विचार में नहीं, व्यवहार में मीरां समाज के अंतिम व्यक्ति से लगाकर पहले व्यक्ति तक के बंधन को काटती है। समाज की अंतिम बंधक है स्त्री और पहली बंधक है राजरानी या भद्र स्त्री। इसलिए जब मीरा बंधन काटकर बाहर आती है- सडक पर, तो एक साथ कई बंधन तड़ातड़ टूटते हैं, पहला अंतःपुर का, दूसरा राज-घराने का, तीसरा वैभव का, चैथा समाज का, पांचवा देश का, छठा काल और सातवां विवाह का। तब कहीं एक राजरानी की मुक्ति होती है।‘‘मध्ययुगीन साहित्य में मीरा की जीवन और साहित्य नारी-विद्रोह का रचनात्मक आगाज है’’19

मीरां की भक्ति पर विचार करने के साथ ही उसके प्रेम और उसके कवि पर भी विचार करना चाहिए। क्योंकि दुःख की अधिकता से व्यक्ति वैरागी भले हो ले, लेकिन न कवि हो सकता है, न प्रेमी। बिना गीत के तो मीरां खुल कर प्रेम भी नहीं कर सकती। ऐसे वक्त जब प्रेमी मूक हो जाते हैं, मीरा गीत गाते हुए तन खोलकर सांवरिया से मिलती है,-‘औ झुरमुट में मिल्यो सांवरो खोल मिली तन गाती।’हाथ में तम्बूरा, दिल में प्रेम और कंठ में गीत लिये मीरा चलती-फिरती आग की लपट थी। आग जब क्षार (खार) को जलाती है तो जो भी क्षार है, सबको जलाती है। क्रांति की यह बडी परिभाषा आज तक हमारी समझ में नहीं आयी। जब हाशिये पर पड़ी स्त्री, स्वाधीनता की पुकार करती है तो हाशिए में जो भी पड़ा है, उसकी आजादी मांगती है। लेकिन हमारा दलित और स्त्री-चेतना परस्पर नहीं जुड़ सका, एक साथ खड़ा नहीं हुआ और अपने भीतर ही खण्ड-खण्ड हुआ पड़ा है। जबकि मीरा के भीतर सम्पूर्ण स्त्री-समाज और सारे दलित साथ मिलकर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। 

मीरा का एक ‘हरजस’ गीत है, ‘राणा को सोते में सपना आया कि मीरा वैरागिन हो गयी है। वह आग-बबूला हो गया। अधरात में ही सीढ़ी उतरा और घोड़े पर सवार हो दनदनाता हुआ सुबह-सवेरे मीरां के देश यानी मेड़ता जा पहुंचा। ग्वाले से रास्ता और पनहारिन से दूदो जी राव (मीरा के दादा जी) का घर-द्वार पूछा। चला तो रास्ते में ही साधुओं की जमात में नाचती मीरां मिल गयी। हाथ में मृदंग, पैरों में घुंघरू, गोपाल के गुण गाती। राणा का क्रोध सातवें आसमान पर। कटार निकाली, पर एक की जगह चार-चार मीरा नजर आ रही हैं, किसे मारे? इधर मीरां कह रही है, ‘गुरु जी शीश पर हाथ धर दो। मीराबाई को चेली बना लो।’ 
वे बोले -
‘‘मीरांबाई म्हं तो जात रो चमार
तूं तो बडां घरां की डावडी....एजी’’20
मीरां बोली -
‘‘गरु जी जाति-पांति रो कारण कोय नीं
बाई ने गरु मिल्या ओ रविदास’’21

एक ओर मीराघर-द्वार-कुल-समाज के बंधन तोडकर सडक पर उतरी, तो दूसरी ओर चमार जाति के रविदास को गुरु ही नहीं बनाती बल्कि वर्ण-व्यवस्था व जात-पात को ठेंगा दिखाती है, जो अपने आप में, समाज में सबसे बड़ा विद्रोह है। मीरा क्या पांच सौ साल की बुढ्या लगती है या आजकल की जवान छोरी? उसने खुद तो अपने बंधन की श्रृंखला तोड़ी ही नहीं, ऊंच-नीच का जग-धंधा व व्यवस्था ही चैपट कर दिया। एक साथ स्त्री-चेतना और दलित-चेतना की बैठकी से कम नजारा नहीं है यह।
‘‘गुरू रैदास मिले मोंहि पूरे, घुर से कलम भिड़ी।
सतगुरू सैन दई कब आके जोत में जोत पड़ी।।’’22

विवाहित-काल में ही मीरां ने रैदास को गुरु बना लिया हो, (और इससे भी पहले) तो क्या अचरज? वे उसकी सास (राणा सांगा की पत्नी) के भी गुरु थे।

कुछ लोग कहते हैं, मीरां गोसाईं विट्ठलनाथ की शिष्या थी। कुछ कहते हैं, तुलसीदास की, कुछ उन्हें जीव गोस्वामी की शिष्या बताते हैं। कुछ लोग रैदास और मीरा के समय का अंतर बताते हुए सप्रमाण दावा करते हैं कि वह रैदास की चेली नहीं हो सकती। कुछ विद्वानों के मत में रैदास का समय सन् 1388 से 1518 और कुछ के मत में 1482 से 1527 है। और मीरां का जन्म सन् 1503 में और विवाह 1516 में ठहराते हैं। 1523 में मीरा के पति मेवाड़ के राणा भोजराज की मृत्यु हो गयी थी। कुछ विद्वानों का मन नहीं मानता कि भोजराज के जीवित रहते मीरां संत हो गयी होगी या उसने रैदास का शिष्यत्व लिया होगा। पर मीरा तो छुटपन से ही भक्तिन थीं और उसके काव्य से ऐसा नहीं लगता कि उसके भीतर मृत्यु-वैराग्य है।
‘‘खोजत फिरो भेद वा घर को, कोई न करत बखानी।
रैदास संत मिले मोहिं सतगुरू, दीन्ह सुरत सहदानी।।’’23

समय-निर्धारण के संशयों या अन्य मतभेदों के चलते अगर कोई साक्ष्य देना हो तो वह होगा, मीरा का क्रांतिकारी चरित्र,उदारता और उसकी कविता। उसने गीतों में गुरु रविदास का पचीसों बार उल्लेख किया है और बडे गर्व से, ‘मीरां ने गरु मिल्या छै रविदास सुरंगा (स्वर्गों) से आयी पालकी।’ मीरा ने संयोगवश नहीं, साभिप्राय रैदास को गुरु बनाया होगा, क्योंकि उसके भीतर की विद्रोही-चेतना और बहती करुणा को अध्यात्म के क्षेत्रमें भी इससे कम मंजूर न था।

मीरां आधुनिक स्त्री के लिए आईना है, अलंकरण, शोभा, भोग वगैरह के नए बंधनों में बंधी? स्वतंत्रता का दंभ भरती आज की फैशनपरस्त स्त्री क्या देख पा रही है कि उसके आसपास सोने के पिंजरे लिये बाजार घूम रहा है और वह भी उन्हीं पिंजरों में से कोई पिंजरा चुनने को न सिर्फ बाध्य है, बल्कि स्वेच्छा से परख रही है कि कौन-सा पिंजरा ज्यादा जड़ाऊ है, ज्यादा कीमती। मीरां को देखिए, स्वाधीनता के मूल्य के लिए वह बिलकुल आज की लड़ाई लड़ रही है।
मीरा की माँ कहती है -
‘‘एकर मीरांबाई आंगणिये पधार
थांनै जीवाद्यूं चूंट्यो चूरमूं जी भगवान’’24
तो मीरां कहती है -
‘‘चूरमा थारां कंवरा नै जीमाय
भंवरां ने जीमाय
म्हारै लिख दीन्हा ठण्डा ठण्डा टुकडा ओ हर राम!’’25

(माँ कहती है कि मीराबाई, एक बार मेरे आंगन में पधार जाओ, आपको चूरमा खिलाऊंगी। मीरां कहती है, माँ, चूरमा तुम अपने कुंअर (राजकुमार) और भंवर (पति) को खिलाओ, मेरी किस्मत में तो ठंडे टुकड़े ही लिखे हैं।) यह सोंचने वाली बात है कि, क्या सचमुच मीरां की किस्मत में ठंडे टुकड़े लिखे आए थे? यह उसका वरण था, क्योंकि यह आजादी की कीमत थी, हर तरह के प्रलोभनों और लगावों का निषेध। 
गहने ऐसा आकर्षक बंधन है जिनके कारण युग-युग में स्त्री बंदिनी रही है। मीरां ने अपनी आजादी के लिए राजपाट, गहनों-गांठों-सबको लात मार दी। देखें -
‘‘मेवाडी राणा तूं तो काँँई जाणै म्हारा घट की
सुसरा जी हट की काण न राखी पट खोल्याँँ घूंघट की
गेहणू गांठो म्हैं तो सब तज दीन्हा, म्हं तो पैली ही नटगी’’26

दक्षिण भारत की भक्तिन आंडांल से मीरा के भाव विधान की गहरी समानता है। दोनों ही मुक्ति और निर्मल प्रेम कवयित्री हुई। जिसने कविता के ही नहीं, अक्षरशः जीव-बंध के सारे छंद तोड़ दिये हैं। उसने समाज-वर्जित प्रेम किया है, कृष्ण से। कृष्ण की भागवत-आवृत्ति की देह और देहोत्तर-वाक में हुई है। उस जैसी विह्वलता, मार्मिकता, निर्भयता और सहज उन्मुक्तता के गीत जब भक्तिकाव्य में भी कम ही हैं तो इस बिकाऊ युग में कहां से होंगे? मीरां ने पहली बार बताया कि प्रेम और भय साथ नहीं चलते। यह मीरां की ही हिम्मत है कि वह अपने प्रिय को आधी रात को यमुना नदी किनारे बुलाती है,-‘आधी रात प्रभु दरसन दीजो प्रेम नदी के तीरा।’ और वह चैडे़ में कहती है,-
’’माई री म्हा लियो गोविंदो मोल।
ये कहयां छाणे म्हां का चोजड़े, लिया बजंता ढ़ोल
ये कहचां मुहोधो म्हां कहयां सस्तो, लिया रीतराजां तोल’’27

‘मैंने गोविन्द को खरीद लिया’ और मोल लिया तो बुद्धू जैसा ठगाकर नहीं, खूब मोल-तोल करके, ‘कोई कहे भारी कोई कहे हलको, लियोजी तराजू तोल।’ यह तराजू बनिये की नहीं है, प्रेमिका की है, एकदम खरी, कोई कान नहीं है इसमें। वह रीतिकालीन प्रेमी की तरह फंसती नहीं कि कोई ‘मन’ भर लेकर ‘छटांक’ भर भी न दे। (मन लेहु पै देहु छटांक नहीं-घनानंद) वह ऐसे तुले-तुलाये, परखे हुए बालम के हाथ खुद बिक जाए तो भी घाटा नहीं। (मीरां गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहे बिगरी।) उसमें इतना साहस है कि जब विवाहित पति भी अधिकार जताये तो तड़ाक से कह दे, ‘हे राणा, बता तूं परणां री सेन’, शादी की पहचान बता। अपनी निष्ठा में वह इतनी पक्की है कि दुनिया से नहीं, देवी-देवताओं तक से पंगा ले लेती है -
‘‘चाहे रूस ज्यावौ जग सारो रै मत रूसो किरतारो रै
बिरमा रूसो, इन्द्र रूसौ, रूसौ कैलास वाळो रै
तैंतीस किरोड देवी-देवता रूसो, रूस ज्यावौ जग सारो रै
मीरां मिंदर आवे जावे ना कोई रोकण वाळो रै।’’28

यह निर्भयता, यह दीवानगी एक तरह से नारी-स्वातंत्र का ही नहीं, मनुष्य की स्वाधीनता का शंखनाद है। भले ही इसका केन्द्र भक्ति हो, लेकिन उसमें सारे लक्षण आजादी के हैं। ‘‘मीरा का जीवन और काव्य उस काल के अन्य भक्त कवियों की स्त्री संबन्धी मान्यताओं का प्रतिकार है और प्रत्युत्तर भी।’’29यों कृष्ण साहित्य स्त्री को समर्पित साहित्य है, यहां तक कि वह स्त्री-आराधना का साहित्य है।कृष्ण-मार्ग में राधा की मुख्य उपासना होती है, परन्तु इस साहित्य की प्रतिनिधि मीरा ही है। 
मीरां के काव्य से स्त्री-चेतना की तीखी सुगंध आती है। आत्म-विस्मृति की पराकाष्ठा में भी मीरा की कविता आत्मवान लगती है। उसकी ग्वालिन सूर और कृष्ण भक्त कवियों की ग्वालन से थोड़ी अलग है। शायद सूर को उनकी तरफ से यह हक नहीं मिला है कि वह अपने प्रिय को ही चैड़े बाजार में बेच दे -
‘‘ले मटकी सिर चली गुजरिया आगै मिले बाबा नंद के छौना
दधि को नाम बिसरि गयो प्यारी ले लेहु कोई स्याम सलोना।’’30

दही लो, दही लो कहते-कहते श्याम लो, श्याम लो कहना केवल अपने व्यापार को भूलना नहीं है, प्रेमाधिकार की निश्छल और खुली अभिव्यक्ति है जो मीरां के भीतर देश-काल के अखंड प्रवाह से उपजी है। ‘‘मीरा का विद्रोह कबीर के विद्रोह की तरह साधन है, साध्य नहीं। इन दोनों का साध्य ऐसे भाव की प्राप्ति में है, जो समस्त दुविधाओं, द्वैतों और भेंदों से उपर उठा दे, सर्वात्मभाव में प्रतिष्ठित कर दे।’’31

मीरा के बारे में कहा जाता है कि वह ‘ललिता’ नाम की सखी का अवतार थी। जब ललिता कालावरण को चीरकर यहां तक चली आयी है तो कृष्ण वहीं कैसे छूट जाते? वहां प्रेम इस पराकाष्ठा में है कि दुनियावी बोध अताकिर्क हो उठता है। मीरां में भी वही है। कभी तो वह गिरधर के हाथ बिक जाती है-‘मीरां गिरधर हाथ बिकानी’कभी उनकी चाकर बन जाती है-‘प्रभुजी म्हाने चाकर राखौजी, चाकर रहस्यूं बाग लगास्यूं नित दिन दरसन पास्यूंजी’ कभी कृष्ण ही उसके चाकर बन जाते हैं, ‘म्हारी सेवा में सालिगराम’। कृष्ण को तो अपने पलंग पर मनुहार से बुलाती है-‘हिंगलू के पलंग पर सांवरिया पांव रखो’। और पति को परे हटा देती है, ‘राणाजी थैं तो दूरां से करल्यो बात।’ जमाने से माँ और पति मर चुके हैं पर मीरां के भीतर सब जीवित हैं, संबोधित है। जीवन से एक अजस्र प्रवाहात्मक रिश्ता होता है प्रेम में आकंठ डूबने वाले का। उसके लिए वह सब उलटा है जो दुनिया के लिए सीधा है, वैसे और वह सब सीधा है जो दुनिया के लिए उलटा है। दुनिया के डाक्टर-वैद्य बताते हैं कि अधिक देखते रहने से आँखें दुखती हैं। पर मीरां बाई की आँखे प्रिय के न दिखने से दुखती है-‘दरस बिन दूखन लागै नैन।’

ऐसी अभिव्यक्ति एक समूची स्त्री, एक सम्पूर्ण प्रेमिका ही कर सकती है, जिसकी अनुभूति का पाट चैडा हो और गहराई की कोई थाह न हो। यह गौर करें कि कृष्ण मीरां की आँखों का ‘नीर’ है। इसी नीर-भरी आँखों से वह दुनिया को देखती है-करुणार्द्र। 

मीरा की ऐसी उक्तियों का स्त्रोत सामन्तवादी-पुरूषसत्तात्मक समाज में बहुविवादी मर्दो पर निर्भर, परजीवी नारी का ‘हारे को हरिराम’ नहीं है? इस स्तर पर आकर यह स्पष्ट होता है कि मीरा ने पितृसत्ता से कितना भी बड़ा विद्रोह किया हो, कितने भी संघर्ष झेलें हो पर आध्यात्मिक स्तर पर पातिव्रत यानी दासता-‘मीरां के प्रभु गिरधर नागर, चरण कवल की दासी’ का ही विकल्प ग्रहण कर जिस प्रतीक की वे स्थापना करती है, वह भारतीय समाज में आम स्त्री को जकड़ने के लिए बनाये गये परम्परागत नियमों को ही परिपुष्ट करता हैं।लौकिक पत्नीत्व से विद्रोह किया, कारण वह थोपा हुआ था। यह ठीक है कि मीरा पितृसत्तात्मक संरचना का विकल्प नहीं रच सकीं। पर यह क्या कम बड़ी बात है कि जिसके लिए आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकारों के साथ-साथ उसका जुबान भी छीन ली गयी हो,वह अपने कुछ चुनावों के द्वारा खुली चुनौती दे सकी। इसका अंदाजा इस रूप में लगाया जा सकता है कि आज के दौर में आधी-दुनियां पर थोपे गये सभी विधि-निषेध को तोड़कर अपना मनचाहा कर पाना, रच पाना या बहुधा बोल पाना ही बहुत बड़ी बात माना जाता है तो उस समय में मीरा की क्या स्थिति होगी यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है। 



संदर्भ:-

1. ‘‘मीराबाई नाम की ओर सर्वप्रथम डा0 पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का ध्यान गया। उन्होंने मीरा शब्द 
की व्युत्पत्ति के प्रश्न पर विचार करते हुए कहा था कि यह फारसी के मीर शब्द पर आधारित है।’’’
’ बड़थ्वाल- पीताम्बरदत्त: मीराबाई नाम ;सरस्वती, सितम्बर, 1939द्ध पृष्ठ-211-213
2. भक्ति में अपने को खोजती हुई मध्ययुगीन कवियित्रियां, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, डा0 
सुमन राजे, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 133-138
3. मौखिक परम्परा से आये ‘हरजस’ का एक गीत
4. मीरा का काव्य - प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी
5. --------वहीं-------
6. चतुर्वेदी-आचार्य परशुराम: मीराबाई की पदावली, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
7. मीरा का काव्य - प्रो0 विश्वनाथ त्रिपाठी
8. ब्रजरत्नाकर, संपा0: मीरा माधुरी, पृष्ठ-25-26
9. चतुर्वेदी-आचार्य परशुराम: मीराबाई की पदावली, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
10. मीरा का काव्य - प्रो0 विश्वनाथ त्रिपाठी
11. तिवारी-भगवानदास: मीरा की भक्ति और उसकी काव्य साधना का अनुशीलन, साहित्य भवन 
(प्रा.) लिमिटेड, इलाहाबाद
12. डममतंश्े जमउचसम जव ज्ञतपेीदं ंज ब्ीपजजवतहंती थ्वतजए त्ंरंेजींद
13. --------वहीं-------
14. राजे, डा0 सुमन, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 150
15. भक्ति आन्दोलन और सूददास का काव्य--प्रो0 मैनेजर पाण्डेय 
16. यादव-कंचन, दास-गोविन्द: उत्तरशती के विमर्श और हाशिए का समाज, प्रकाशन-श्यामा प्रसाद 
मुखर्जी राजकीय महाविद्यालय (रविन्द्र कुमार पाठक: भक्तिकाल को चुनौती दे रही मीरा की स्त्री चेतना, शोधपत्र)पृ0-226
17. जनसत्ता, 18 सितम्बर, 1978, में प्रभाश जोशी की टिप्पणी यह टिप्पणी दर्शनीय है।-‘‘रूपकुवंर किसी 
के धमकाने या उसकाने पर सती नहीं हुई और न हीं उसके अपने जीवन में ऐसी कोई अनोखी निराशा छा गयी थी कि पति के साथ जल मरने के सिवाय उसके पास कोई चारा न बचा हो। ......लाखों विधवाओं में से कोई ही सती होने का संकल्प करती है और उसका यह आत्मोसर्ग लोगों की श्रद्धा और पूजा का केन्द्र बन जाए, यह स्वाभाविक ही है। इसलिए इसे न तो स्त्रियों के नागरिक अधिकार का सवाल कहा जा सकता है और न हीं स्त्री-पुरूष के भेंद-भाव का। यह तो एक समाज के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों का मामला है। जो लोग इस जन्म को ही आदि और अंत मानते हैं, उन्हें सती प्रथा कभी समझ में नहीं आएगी। वह उस समाज से निकली हैै, जो मृत्यु को व्यक्ति का सर्वथा अंत नहीं मानता, बल्कि उसे एक जीवन से दूसरे जीवन की ओर बढ़़ने का माध्यम समझता है। ऐसा समाज ही सती प्रथा के उचित या अनुचित होने पर कोई सार्थक बहस कर सकता है। .बल्कि यह अधिकार उन लोगों को नहीं है जो भारत में आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को जानते समझतें ही नहीं हैं। ऐसे लोग कोई फैसला देगें तो उसकी वैसी ही धज्जियां उड़ेगी, जैसी राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले और सरकार के आदेश की दिवराला में उड़ी।’’(स्त्रोत-आदमी की निगाह में औरत: राजेन्द्र यादव )
18. मीरा का काव्य-प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी (भूमिका में)
19. राजे, डा0 सुमन, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0-148
20.मौखिक परम्परा से आये ‘हरजस’ का एक गीत
21.------वहीं------
22. ब्रजरत्नदास, संपा0: मीरा माधुरी, पृ0-75
23.----वहीं-----पृ0-68-69
24.मौखिक परम्परा से आये ‘हरजस’ का एक गीत
25.----वहीं----
26.मीरा का काव्य-प्रो0 विश्वनाथ
27.----वहीं----
28. चतुर्वेदी-आचार्य परशुराम: मीराबाई की पदावली, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
29. मीरा का काव्य - प्रो0 विश्वनाथ त्रिपाठी
30. भक्ति आन्दोंलन और सूर का काव्य - प्रो0 मैनेजर पाण्डेय
31. मीरा का काव्य-प्रो0 विश्वनाथ त्रिपाठी 

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